पत्रकार मोहम्मद सईद
नई दिल्ली:
महात्मा फुले और सावित्रीबाई फुले जैसे महान समाज सुधारकों के जीवन पर आधारित फिल्म “फुले” देशभर में बड़े स्तर पर रिलीज नहीं हो सकी है। फिल्म की सीमित पहुंच को लेकर कई सामाजिक संगठनों और राजनीतिक दलों ने गंभीर सवाल उठाए हैं। कुछ आरोपों के अनुसार, इसके पीछे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) सहित सत्तारूढ़ वर्गों का दबाव भी जिम्मेदार बताया जा रहा है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं का आरोप
कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और संगठनों का कहना है कि फुले दंपति की विचारधारा — जो जातिवाद और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ थी — कुछ राजनीतिक समूहों को असहज करती है। उनका आरोप है कि इसी कारण “फुले” फिल्म को व्यापक स्तर पर स्क्रीनिंग का अवसर नहीं दिया गया।
सोशल मीडिया पर उठा आंदोलन
सोशल मीडिया पर हजारों यूजर्स ने सवाल उठाए हैं कि एक समाज सुधारक की जीवनगाथा को दर्शाने वाली फिल्म को सीमित क्यों किया गया। कई यूजर्स का आरोप है कि भाजपा शासित राज्यों में फिल्म के प्रचार और प्रदर्शन पर अप्रत्यक्ष रूप से बाधाएं डाली गई हैं।
विपक्षी दलों की प्रतिक्रिया
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इस मुद्दे पर भाजपा की आलोचना करते हुए कहा है कि समाज सुधारकों की विरासत को दबाना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ है। एक विपक्षी नेता ने कहा, “यदि आज भी जातिवाद के खिलाफ आवाज उठाने वालों को रोका जा रहा है, तो यह चिंताजनक है।”
सरकारी पक्ष की कोई पुष्टि नहीं
अब तक केंद्र सरकार या भाजपा की ओर से इस विषय में कोई आधिकारिक बयान जारी नहीं किया गया है। भाजपा से जुड़े कुछ नेताओं ने अनौपचारिक बातचीत में इन आरोपों को निराधार बताया है, लेकिन आधिकारिक प्रतिक्रिया आना अभी बाकी है।
विशेषज्ञों की राय
राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि फुले और सावित्रीबाई जैसे सुधारकों के विचार आज भी सामाजिक संरचनाओं को चुनौती देते हैं, और ऐसे में उनके जीवन पर बनी फिल्में राजनीतिक बहस का केंद्र बन सकती हैं।
निष्कर्ष
“फुले” फिल्म की सीमित रिलीज पर उठ रहे सवाल अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के मुद्दे को एक बार फिर केंद्र में ले आए हैं। यह देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में इस विषय पर क्या कोई स्पष्ट स्थिति सामने आती हैं।
